तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् |
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ || 6||
तत्र-इनके मध्य; सत्त्वम्-सत्त्व गुण; निर्मलत्वात्–शुद्ध होना; प्रकाशकम्-प्रकाशित करना; अनामयम्-स्वास्थ्य और पूर्ण रूप से हृष्ट-पुष्ट; सुख-सुख की; सङ्गन-आसक्ति; बध्नाति–बाँधता है; ज्ञान-ज्ञान; सङ्गन-आसक्ति से; च-भी; अनघ-पापरहित, अर्जुन।
BG 14.6: इनमें से सत्त्वगुण शुद्ध होने के कारण प्रकाश प्रदान करने वाला और पुण्य कर्मों से युक्त है। हे निष्पाप अर्जुन! यह आत्मा में सुख और ज्ञान के भावों के प्रति आसक्ति उत्पन्न कर उसे बंधन में डालता है।
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'प्रकाशकम' शब्द का अर्थ 'प्रकाशित करना' है। 'अनामयम्' शब्द का अर्थ 'स्वास्थ्य और अच्छाइयों से युक्त होना है।' विस्तृत रूप से इसका अर्थ है-'शांत स्वभाव' अर्थात् पीड़ा के कारणों, असहजता या दुःखों से रहित होना है। सत्त्वगुण शांत और प्रकाशवान है। सत्त्वगुण किसी के व्यक्तित्व में सद्गुण उत्पन्न करते हैं और बुद्धि को ज्ञान से आलोकित करते हैं। यह मनुष्य को स्थिर, संतुष्ट, दानी, दयालु, सहायक, और शांत बनाते हैं। यह उत्तम स्वास्थ्य बनाए रखते हैं और हमें रोग मुक्त करते हैं। सत्त्वगुण शांति और प्रसन्नता के कारण उत्पन्न होते हैं और इनमें आसक्ति होने से ये आत्मा को माया के बंधन में डालते हैं।
आइए इसे एक उदाहरण के माध्यम से समझे। एक यात्री जंगल से जा रहा था तब तीन डाकुओं ने उस पर हमला किया। पहले डाकू ने कहा कि इसकी हत्या करके इसका सारा धन छीन लेते हैं। दूसरे ने कहा कि इसकी हत्या न करके इसे केवल बांधकर इसकी सारी सम्पत्ति लूट लेते हैं। दूसरे डाकू के परामर्श के अनुसार उन्होंने उसे रस्सियों से बांधकर उसकी सारी सम्पत्ति लूट ली। जब सभी डाकू कुछ दूर आगे निकल गये तब तीसरा डाकू लौटकर उसी स्थान पर आया जहाँ उन्होंने यात्री को बांधा था। उसने यात्री की रस्सियाँ खोल दी और उसे जंगल के किनारे पर ले गया और कहा–'मैं स्वयं यहाँ से बाहर नहीं जा सकता लेकिन यदि तुम इस मार्ग पर आगे चलोगे तब तुम इस जंगल से बाहर निकल जाओगे।'
पहला डाकू तमोगुणी था जो अज्ञानता का स्वरूप है जो वास्तव में स्वयं का पतन कर उस व्यक्ति की हत्या करना चाहता था। दूसरा डाकू रजोगुणी है जो कि वासना का स्वरूप है। जो जीवों में आसक्ति बढ़ाती है और आत्मा को सांसारिक कामनाओं से बांधती है। तथा तीसरा डाकू सत्त्वगुणी था जो अच्छाई का गुण है और जो मनुष्य में बुराइयों को कम करता है तथा आत्मा को सदाचार के मार्ग पर ले जाता है। किंतु सत्त्वगुण माया के क्षेत्र के भीतर है। इसमें हमारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए अपितु हमें इसका प्रयोग दिव्यता की ओर कदम बढ़ाने के लिए करना चाहिए। इन तीनों से परे शुद्ध सत्त्व है जो सत्त्वगुण की चरम अवस्था है। यह भगवान की योगमय शक्ति का गुण है जो माया से परे है। जब आत्मा भगवत्प्राप्ति कर लेती है तब भगवान अपनी कृपा से आत्मा को शुद्ध सत्त्व प्रदान करते हैं तथा इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दिव्य बनाते हैं।